बिंदु सिन्हा और ज़्देन्येक वाग्नेर (Bindu Sinha and Zdeněk Wagner)
This is my Hindi homework. No translation is available.
स्कूल में हमने बिंदु सिन्हा की कहानी पढ़ी जिसका अंत पाठ्यपुस्तक में नहीं था। हमें तो उत्तर-कथा लिखनी थी। आप मेरा होम-वर्क बिंदु सिन्हा की कहानी के हिस्से के नीचे पढ़ सकेंगे।
1. | बिंदु सिन्हा की कहानी का एक हिस्सा |
2. | मेरे द्वारा लिखी हुई उत्तर-कथा |
कहानी सिर्फ़ तस्वीरों के रूप में उपलब्ध है।
(तस्वीरें मेरे द्वारा भी बनी हुई हैं)
इसी दिन सुनीता ने लाल क़िले में बहुत ही समय बिताया है। घर लौटने पर तो जल्दी जल्दी सब तैयारियाँ करनी थी। इसीलिए कमरे के एक कोने में जाल रहा जिससे एक छोटी-सी मकड़ी देख रही थी कि सुनीता अलोक और रंजना के साथ होम-वर्क करती है और बाद में भोजन पकाती है। हमेशा जैसे सुनीता अपना काम करती थी, फिर भी उसके मन में आज कुछ कुछ अजीब था जैसे कि उसके दिल में किसी और व्यक्ति का आवास हो गया है। किंतु सुरेश से बातचीत करके उसने लाल क़िले का कोई भी ज़िक्र ना किया है।
घंटे बाद रात आई। कमरे की खिड़की पूर्वी दिशा में स्थित थी। आज पूर्णमासी थी। बाहर तो इतनी अंधेरी नहीं थी। बिस्तर से ही सुनीता देख सकती थी कि सफ़ेद चंद्र सितारों के बीच शांति से काले अंबर पर तैर रहा था। शायद हलका-सा मेघ आकाश पर चला आया और एक पल के लिए ही चाँद के मध्य में युवक का चेहरा दिखाई दिया। अचानक रुपहली रश्मि ने सुनीता की आँखों को छुआ मानो चाँद की सुरीली आवाज़ धीमे पूछना चाहे, “सुनीता तुम यहाँ किसी की प्रतीक्षा कर रही हो, किसी की प्रतीक्षा कर रही हो, किसी की प्रतीक्षा?” एक क्षण बाद ऐसे लगा कि यह सब कुछ कभी न हुआ। चंद्र की आँखें अब किसी और खिड़की पर देख रही हैं।
सुबह आयी। सुनीता रोज़ का काम कर रही है। पति के लिए बिस्तर में चाय लाना, बच्चों को नाश्ता बनाना और बाद में उन्हें स्कूल भेजना। उसके बाद सुनीता ने घर की सफ़ाई शुरू किया। मकड़ी जाल पर नहीं बैठी थी। हालांकि आज सुनीता ज़रा अन्यमनस्क थी फिर भी जाल पर बैठना ख़तरनाक हो सकता था। मकड़ी तो कोने में ही बैठकर अदृश्य बनने की कोशिश कर रही थी। वह तो महसूस नहीं कर सकी इसलिए कि कमरे में एक ही औरत के दिल में दो व्यक्ति मौजूद थे। एक व्यक्ति घर की सफ़ाई के बारे में सोच रहा था पर दूसरा व्यक्ति सुनीता का दिल लाल क़िले की तरफ़ प्रेषित कर रहा था। कौन-से व्यक्ति की जीत होगी? आखिरकर सुनीता ने मीना बाज़ार से फल सब्ज़ी ख़रीदने का निश्चय किया है।
मीना बाज़ार की छोटी दुकानों के पीछे जामा मस्जिद के दो मीनार नीले अंबर तक छूते थे। मौलाना आज़ाद के कब्र के पास कुछ लड़के खेल रहे थे। एक लड़की नहीं खेल रही थी। वह इधर उधर चलकर बोल रही थी, “बाबू जी, कुछ पैसे दीजिए, नानी जी, कुछ पैसे दीजिए, चाची जी, कृपा करके, पैसे ना देती तो मुझे कम से कम एक ही केला या संतरा ख़रीदें।”
“तेरा नाम क्या है?” सुनीता ने लड़की से पूछा।
“मेरा नाम करुणा है, चाची जी,” लड़की ने जवाब दिया।
“तेरी मम्मी कहाँ है?”
“मेरी मम्मी नहीं है, चाची जी। बीमार हो गई थी। बहुत ही तेज़ बुख़ार थी। अस्पताल जाने को काफ़ी पैसे नहीं थे तो दो महीने पहले मर गई थी।”
“तेरे पिता जी तो पैसे कमाते नहीं क्या?” आश्चर्यचकित आवाज़ से सुनीता ने पूछा।
“पिता जी भी नहीं हैं। पीछले साल कारख़ाने में दुरघटना थी। तब वे मर गए थे।”
“और दादा जी या नाना जी॰॰॰”
“भी नहीं हैं। वे सब बहुत ही बूढ़े थे। बहुत समय पहले समाधि स्थल से यमुना नदी के जल ने उनका भस्म सरस्वती की ओर ले लिया था। अब तो अनाथ हूँ।”
“तू कहाँ रहती है?”
“पहाड़गंज में रहती थी लेकिन किराया नहीं दे सकती हूँ। अब तो जहाँ पैर रखने की कोई भी छोटी-सी जगह मिलेगी वहीं रहती हूँ।”
सुनीता की आँखें ज़रा भर आयीं। मन में अपने बच्चों को देखा उसने।
“आज तूने कुछ खाया है?” सुनीता ने करुणा से पूछा।
“कल मुझे अच्छे लोगों ने कुछ खाना दे दिया था। आज सवेरे मुझे कुछ दूध और दही मिला।”
“दुकान तो आएँ, मैं तुझे कुछ ख़रीदूँगी। दिखा, तुझे क्या पसंद है?”
“यह सेब अच्छा लगता है।”
“न छूना मेरा सेब,” दुकानदार ग़ुस्से से चिल्लाया। “पैसे हैं तेरे पास क्या?”
“पैसे नहीं हैं,” डरते हुए करुणा ने धीमे-धीमे उच्चारित किया है।
सुनीता ने शांति से बोली, “ठीक है, ठीक है, मैं पैसे दूँगी।” फिर करुणा से कहा, “तेरा दिल जो कुछ चाहे उसे तू ले ले। मैं पैसे दूँगी।”
करुणा ने कुछ फल ले लिया है।
“सब है?” सुनीता ने पूछा।
“काफ़ी है, चाची जी। मेरा पेट छोटा ही है।”
“कोई टाफ़ियाँ चाहती है तू न?”
“टाफ़ियों के लिए पैसे नहीं हैं। रोटी-दाल ख़रीदने को पैसे मुशकिलाई से पाना है, टाफ़ियाँ नहीं ख़रीद सकती हूँ।”
सुबह की याद सुनीता के मन में आयी। ऐसा दिन नहीं था कि रंजना या अलोक ने टाफ़ियाँ न मांगीं।
“टाफ़ियों बिना ज़िंदगी ख़ुश नहीं है,” सुनीता बोली।
हिचकिचाहट बिना करुणा ने कहा, “जो कुछ भगवान देता वह हमें ख़ुशी से स्वीकार है।”
सुनीता से कुछ भी बोला न जाता। कुछ देर बोली, “लगता है कि आज भगवान एक अनाथ को टाफ़ियाँ देना चाहता है। मैं तेरे लिए टाफ़ियाँ ख़रीदूँगी।” कुछ सिक्के देकर सुनीता ने कहा, “यह पैसे भी ले ले।”
करुणा की आँखें ख़ुशी से चमकने लगीं। “बहुत शुक्रिया, चाची जी। यह दिन मेरे लिए बहुत बहुत प्रसन्न हो जा रहा है।”
विदाई लेने पर सुनीता रिक्शे से लाल क़िले की ओर चली गई। युवक वहाँ नहीं था। ज़रा प्रतीक्षा करने पर सुनीता अकेली लाल क़िले के अंदर चली गई। दीवान-ए-ख़ास के सामने छः लड़कियाँ हंसते हंसते एक दूसरी की फ़ोटो खींच ले रही थीं। तब सुनीता के मन में उसके बच्चों की याद आयी। उसके दिल में दोनों व्यक्तियों के मध्य बातचीत चल रही थी। बातचीत में एक ही प्रश्न दिखाई दिया। क्या परिवार जीवन की ख़ुशी है? क्या बच्चे ज़िंदगी का अर्थ हैं?
सुनीता सोच में पड़ी। मोती मस्जिद की ओर जाकर उसे ऐसा लगा कि जवाब धीरे-धीरे आ रहा है।